प्रोटीन संश्लेषण में न्यूक्लिटाइड की भूमिका का प्रदर्शन करने वाले पहले व्यक्ति डॉ हरगोविंद खुराना एक भारतीय-अमेरिकी वैज्ञानिक थे जिन्हें सन 1968 में चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। उन्हें यह पुरस्कार साझा तौर पर दो और अमेरिकी वैज्ञानिकों मार्शल डब्ल्यू. नीरेनबर्ग और डॉ. रॉबर्ट डब्लू. रैले के साथ दिया गया। इस अनुसंधान से पता लगाने में मदद मिली कि कोशिका के आनुवंशिक कूट को ले जाने वाले न्यूक्लिक अम्ल न्यूक्लिओटाइड्स कैसे कोशिका के प्रोटीन संश्लेषण (सिंथेसिस) को नियंत्रित करते हैं।
आरंभिक जीवन
उन्का जन्म रायपुर, जिला मुल्तान (अब पाकिस्तान) में हुआ था। पटवारी पिता के चार पुत्रों में ये सबसे छोटे थे। प्रतिभावान् विद्यार्थी होने के कारण विद्यालय तथा कालेज में इन्हें छात्रवृत्तियाँ मिलीं। पंजाब विश्वविद्यालय से सन् 1943 में बी. एस-सी. (आनर्स) तथा सन् 1945 में एम. एस-सी. (ऑनर्स) परीक्षाओं में ये उत्तीर्ण हुए तथा भारत सरकार से छात्रवृत्ति पाकर इंग्लैंड गए। यहाँ लिवरपूल विश्वविद्यालय में प्रोफेसर ए. रॉबर्टसन् के अधीन अनुसंधान कर इन्होंने डाक्ट्रैट की उपाधि प्राप्त की। फिर भारत सरकार से शोधवृत्ति मिलीं और जूरिख (स्विट्सरलैंड) के फेडरल इंस्टिटयूट ऑव टेक्नॉलोजी में प्रोफेसर वी. प्रेलॉग के साथ अन्वेषण में प्रवृत्त हुए।
हरगोविंद की प्राथमिक शिक्षा गाँव के स्कूल में हुई। उन्होंने मिडिल की परीक्षा खालेवाल से दी, जिसमें उन्हें पूरे जिले में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ। इससे उन्हें छात्रवृत्ति भी प्राप्त हुई। उसके बाद उन्होंने डी.ए.वी हाईस्कूल, मुल्तान में प्रवेश लिया। वे प्रारम्भ से मेधावी विद्यार्थी थे और अक्सर पढ़ाई में इतने मगन हो जाते थे कि भूख-प्यास तक बिसरा देते थे। हरगोविंद को बचपन से ही गणित में विशेष रूचि थे। वे माँ के खाना बनाते समय उनके पास बैठकर पढ़ाई करते और शर्त लगाते हुए कहते- माँ, देखता हूँ मेरा सवाल पहले हल होता है, या तुम्हारी रोटी पहले उतरती है। और इस शर्त में अक्सर वे ही सफल होते। जब हाईस्कूल का रिजल्ट निकला, उनका मेरिट सूची में शामिल था।
सन 1945 में हरगोविंद ने एम.एससी. की परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके बाद भारत सरकार ने छात्रवृत्ति प्रदान कर उन्हें शोध कार्यों के लिए इंग्लैंड भेजा। 1946 में विज्ञान की दुनिया में तरह-तरह के शोध हो रहे थे। भारतीय नौजवानों को विज्ञान के प्रति जागरुक बनाने के लिए बहुत तेजी से प्रयास किए जा रहे थे। हरगोविंद खुराना ने इंग्लैंड के लीवर पूल विश्वविद्यालय में डॉक्टर रॉबर्टसन की देखरेख में जीव विज्ञान पर तरह-तरह के शोध किए। सन 1948 में उन्हें उस विश्वविद्यालय से पीएच. डी. की डिग्री प्राप्त हुई। उसके बाद हरगोविंद स्विट्जरलैंड गए। स्विट्जरलैंड के बारे में उन्होंने बहुत कुछ सुना था। वहां के ज्यूरिख विश्वविद्यालय में वे विशेष कोर्स का अध्ययन करने लगे। इस कोर्स को करने के बाद वे वहीं काम करना चाहते थे। लेकिन आगे चलकर उन्हें वहां कोई काम नहीं मिला। इसलिए स्विट्जरलैंड से उनका मोह भंग हो गया। वे वापस इंग्लैंड लौट आए।
भारत में वापस आकर डाक्टर खुराना को अपने योग्य कोई काम न मिला। हारकर इंग्लैंड चले गए, जहाँ केंब्रिज विश्वविद्यालय में सदस्यता तथा लार्ड टाड के साथ कार्य करने का अवसर मिला। सन् 1952 में वे वैकवर (कैनाडा) की ब्रिटिश कोलंबिया अनुसंधान परिषद् के जैवरसायन विभाग के अध्यक्ष नियुक्त हुए। सन् 1960 में इन्होंने संयुक्त राज्य अमरीका के विस्कान्सिन विश्वविद्यालय के इंस्टिट्यूट ऑव एन्जाइम रिसर्च में प्रोफेसर का पद पाया और अब इसी संस्था के निदेशक बने। यहाँ उन्होंने अमरीकी नागरिकता स्वीकार कर ली।
करियर
वे सन 1950 से 1952 तक कैंब्रिज में रहे। इसके बाद उन्होंने के प्रख्यात विश्वविद्यालयों में पढ़ने और पढ़ाने दोनों का कार्य किया। 1952 में उन्हें वैंकोवर (कैनाडा) की कोलम्बिया विश्विद्यालय से बुलावा आया जिसके उपरान्त वे वहाँ चले गये और जैव रसायन विभाग के अध्यक्ष बना दिए गये। इस संस्थान में रहकर उन्होंने आनुवाँशिकी के क्षेत्र में शोध कार्य प्रारंभ किया और धीरे-धीरे उनके शोधपत्र अन्तर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं और शोध जर्नलों में प्रकाशित होने लगे। इसके फलस्वरूप वे काफी चर्चित हो गये और उन्हें अनेक सम्मान और पुरस्कार भी प्राप्त हुए। सन 1960 में उन्हें ‘प्रोफेसर इंस्टीट्युट ऑफ पब्लिक सर्विस’ कनाडा में स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया और उन्हें ‘मर्क एवार्ड’ से भी सम्मानित किया गया। इसके पश्चात सन् 1960 में डॉ खुराना अमेरिका के विस्कान्सिन विश्वविद्यालय के इंस्टिट्यूट ऑव एन्जाइम रिसर्च में प्रोफेसर पद पर नियुक्त हुए। सन 1966 में उन्होंने अमरीकी नागरिकता ग्रहण कर ली।
योगदान
1960 के दशक में खुराना ने नीरबर्ग की इस खोज की पुष्टि की कि डी.एन.ए. अणु के घुमावदार सोपान पर चार विभिन्न प्रकार के न्यूक्लिओटाइड्स के विन्यास का तरीका नई कोशिका की रासायनिक संरचना और कार्य को निर्धारित करता है। डी.एन.ए. के एक तंतु पर इच्छित अमीनोअम्ल उत्पादित करने के लिए न्यूक्लिओटाइड्स के 64 संभावित संयोजन पढ़े गए हैं, जो प्रोटीन के निर्माण के खंड हैं। खुराना ने इस बारे में आगे जानकारी दी कि न्यूक्लिओटाइड्स का कौन सा क्रमिक संयोजन किस विशेष अमीनो अम्ल को बनाता है। उन्होंने इस बात की भी पुष्टि की कि न्यूक्लिओटाइड्स कूट कोशिका को हमेशा तीन के समूह में प्रेषित किया जाता है, जिन्हें प्रकूट (कोडोन) कहा जाता है। उन्होंने यह भी पता लगाया कि कुछ प्रकूट कोशिका को प्रोटीन का निर्माण शुरू या बंद करने के लिए प्रेरित करते हैं। खुराना ने 1970 में आनुवंशिकी में एक और योगदान दिया, जब वह और उनका अनुसंधान दल एक खमीर जीन की पहली कृत्रिम प्रतिलिपि संश्लेषित करने में सफल रहे। डॉक्टर खुराना अंतिम समय में जीव विज्ञान एवं रसायनशास्त्र के एल्फ्रेड पी. स्लोन प्राध्यापक और लिवरपूल यूनिवर्सिटी में कार्यरत रहे।
पुरस्कार
नाभिकीय अम्ल सहस्रों एकल न्यूक्लिऔटिडों से बनते हैं। जैव कोशिकओं के आनुवंशिकीय गुण इन्हीं जटिल बहु न्यूक्लिऔटिडों की संरचना पर निर्भर रहते हैं। डॉ॰ खुराना ग्यारह न्यूक्लिऔटिडों का योग करने में सफल हो गए थे तथा अब वे ज्ञात शृंखलाबद्ध न्यूक्लिऔटिडोंवाले न्यूक्लीक अम्ल का प्रयोगशाला में संश्लेषण करने में सफल हुये। इस सफलता से ऐमिनो अम्लों की संरचना तथा आनुवंशिकीय गुणों का संबंध समझना संभव हो गया है और वैज्ञानिक अब आनुवंशिकीय रोगों का कारण और उनको दूर करने का उपाय ढूँढने में सफल हो सकेंगे।
डॉ हरगोविंद खुराना को उनके शोध और कार्यों के लिए अनेकों पुरस्कार और सम्मान दिए गए। इन सब में नोबेल पुरस्कार सर्वोपरि है। 1968 में चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार मिला। 1958 में उन्हें कनाडा का मर्क मैडल प्रदान किया गया। 1960 में कैनेडियन पब्लिक सर्विस ने उन्हें स्वर्ण पदक दिया। 1967 में डैनी हैनमैन पुरस्कार मिला। 1968 में लॉस्कर फेडरेशन पुरस्कार और लूसिया ग्रास हारी विट्ज पुरस्कार से सम्मानित किये गए सन 1969 में भारत सरकार ने डॉ. खुराना को पद्म भूषण से अलंकृत किया। पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ ने डी.एस-सी. की मानद उपाधि दी।
डाक्टर खुराना की इस महत्वपूर्ण खोज के लिए उन्हें अन्य दो अमरीकी वैज्ञानिकों के साथ सन् 1968 का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। इसके पूर्व सन् 1958 में कैनाडा के केमिकल इंस्टिटयूट से मर्क पुरस्कार मिला तथा इसी वर्ष आप न्यूयार्क के राकफेलर इंस्ट्टियूट में वीक्षक प्रोफेसर नियुक्त हुए। सन् 1959 में कनाडा के केमिकल इंस्ट्टियूट के सदस्य निर्वाचित हुए तथा सन् 1967 में होनेवाली जैवरसायन की अंतरराष्ट्रीय परिषद् में आपने उद्घाटन भाषण दिया। डॉ॰ निरेनबर्ग के साथ आपको पचीस हजार डालर का लूशिया ग्रौट्ज हॉर्विट्ज पुरस्कार भी सन् 1968 में ही मिला है। 09 नवम्बर 2011 को इस महान वैज्ञानिक ने अमेरिका के मैसाचूसिट्स में अन्तिम सांस ली।
