
जयंती : 12 जनवरी
स्वामी विवेकानन्द का जन्म पश्चिम बंगाल के कलकत्ता (अब कोलकाता) जिले में 12 जनवरी 1861 को हुआ। उनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त तथा माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। स्वामी विवेकानन्द के पिता उच्च न्यायालय के वकील थे। स्वामी विवेकानन्द के बचपन का नाम नरेन्द्र नाथ उत्त उर्फ नरेन था। वे एक मधुर, प्रफुल्ल व चंचल बालक थे। वे बचपन मेें ही सन्यासियों के प्रति विशेष आकर्षण रखते थे। भिक्षा मांगने आने वालों को अपनी प्रिय वस्तु देने से भी हिचकते नहीं थे। नरेन्द्र की किसी बात से क्रोधित होकर उनके पिता ने उनका विद्यालय जाना बन्द करवाकर उनकी पढ़ाई की व्यवस्था अन्य बच्चों के साथ घर पर ही कर दी। इस प्रकार घर पर आने वाले गुरूजी से जिज्ञासू नरेन्द्र ने अथाह ज्ञान प्राप्त कर लिया। विद्यार्थी के रूप में उन्होंने संस्कृत व्याकरण, महाभारत व रामायण का बड़ा अंश कंठस्थ कर लिया था। किशोर उम्र में ही नरेन्द्र ने अंग्रेजी, संगीत के साथ-साथ प्राचीन इतिहास का गहन अध्ययन कर लिया। नरेन्द्र उस समय राजा राममोहन राय से काफी प्रभावित थे उन्होंने ब्रह्य समाज की सदस्यता भी ग्रहण कर ली थी। कॉलेज में अध्ययन के दौरान अंग्रेजी के प्रोफेसर द्वारा दिये जा रहे व्याख्यान में नरेन्द्र ने अपने अंग्रेजी के प्रोफेसर हेस्टी से सर्वप्रथम स्वामी रामकृष्ण परमहंस के बारे में जाना तभी से उनके मन उनसे मिलने तथा अपनी जिज्ञासा को पूरा करने की इच्छा जाग उठी।
उसके पश्चात् उन्होंने अपने एक रिश्तेदार रामचन्द्र दत्त से भी स्वामी रामकृष्ण के बारे में सुना। स्वामी रामकृष्ण परमहंस तथा नरेन्द्र का पहली बार मिलन नवम्बर 1881 में हआ। नरेन्द्र स्वामी जी को देख वहीं स्थिर ही खड़े रह गये। बाद में उन्होंने अपना गीत स्वामी परमहंस को सुनाया। नरेन्द्र का गीत सुनकर रामकृष्ण भाव विह्नवल हो गए और उनके आंसू बह निकले। रामकृष्ण ने कहा जिसके नरों में इन्द्र हो वह इतना मधुर तो गायेगा ही इस पर इनको नर रूपी नारायण की संज्ञा दी। इसके बाद की कई मुलाकातों तक नरेन्द्र ने रामकृष्ण को कई बार परखा। कुछ वर्ष के बाद नरेंद्र को ब्रह्मानुभूति हुई और उन्होंने रामकृष्ण को अपना गुरु व पथ प्रदर्शक माना। बाद में रामकृष्ण से प्रेरणा लेकर उन्होंने सन्यासी के रूप में भारत भ्रमण किया। इस दौरान ऐसी कई घटनाएं घटी जिससे उनका ईश्वर में विश्वास बढ़ता गया। भारत के लोगों का जीवन स्तर सुधारने तथा उन्नत करने के लिए उन्होंने कई प्रयास किये। अपने भारत भ्रमण के दौरान नरेन्द्र ने कई धर्म व्याख्यान दिए जिससे सभी काफी प्रभावित भी हुए। अपने भ्रमण काल के वक्त उनके कई शिष्य एवं अनुयायी बने तथा कई अनन्य मित्र बने। इन मित्रों में से एक थे खेतड़ी नरेश अजीत सिंह।
खेतड़ी नरेश नरेन्द्र के धर्म व्याख्यानों तथा उनके विचारों से अभिभूत थे अपने अनन्य स्नेह और अपार श्रद्धा के साथ उन्होंने ही नरेन्द्र को नया नाम विवेकानन्द दिया उसके पश्चात् नरेन्द्र स्वामी विवेकानन्द के नाम से पुकारे जाने लगे। अपने गुजरात प्रवास के समय उन्हें मित्रों से शिकागों में होने वाले धर्म महासभा सम्मेलन के बारे में ज्ञात हुआ जिसमें भारत का प्रतिनिधित्व करने का अनुरोध सभी ने किया। स्वामी विवेकानन्द के शिकागों जाने की सारी तैयारियां एवं व्यवस्थाएं खेतड़ी नरेश द्वारा की गई। खेतड़ी नरेश के निजी सविच के साथ विवेकानन्द मुंबई गए। 31 मई 1893 को मुंबई बंदरगाह से रवाना हुए। चीन, जापान होते हुए प्रशान्त महासागर पार कर वैकंवर बंदरगाह पर पहुंचेे। वहां से वह ट्रेन से शिकागों पहुंचे। विदेश में अकेले विवेकानन्द के धर्म महासथा में प्रतिनिधि बनने में प्रो. राइट ने मदद की।
11 सितम्बर 1893, सोमवार को आर्ट पैलेस का बड़ा हॉल जो लगभग पांच-सात हजार अमरीकी लोगों से पूरा खचाखच भरा था। वहां आये हुए सभी प्रतिनिधि अपना लिखित भाषण पड़ते थें। जब स्वामी विवेकानन्द जी का नाम पुकारा गया तो उनकी धड़कने तेज हो गई और अपने गुरूजी को स्मरण कर वे वक्तव्य देने उठे। विवेकानन्द ने औपचारिक सम्बोधन से परे अमरीकावासी भाइयों व बहनों का सम्बोधन किया। सुनते ही सभी अपने स्थान पर उठ खड़े हुए। लगभग दो मिनट तक तालियों की आवाज गूंजती रही।
उनके भाषण का मूल सार्वभौमिक सहष्णिुता एवं धर्म नीति पर आधारित था। उन्होंने दो श्लोक उद्धत किए। उनके भाषण की काफी प्रशंसा हुई। उनको धर्म महासभा के सबसे महान व्यक्ति का सम्मान मिला। अगले दिन के सभी समाचार पत्रों के मुख्य पृष्ठ पर स्वामी विवेकानन्द की ही खबरें थी। सही अर्थो में स्वामी विवेकानन्द जी भारतीय नवजागरण के अग्रदूत थे। वे महान देशभक्त, लेखक, विचारक, संगीतज्ञ, वक्ता व मानव प्रेमी थे। ऐसे महान व्यक्तित्व से परिपूर्ण स्वामी विवेकानन्द जी 4 जुलाई 1902 को निर्विकल्प समाधि लेकर अमर हो गए। उनका जीवन सभी युवाओं के लिए आज भी एक उच्च आदर्शवान जीवन निर्माण का मजबूत आधार स्तम्भ है।
