Exclusive Interview : संसद में हंगामा लोकतंत्र की जड़ों पर आघात : राज्यसभा उपसभापति

Exclusive Interview : संसद में हंगामा लोकतंत्र की जड़ों पर आघात : राज्यसभा उपसभापति

लोकतंत्र की सफलता संवाद, सहमति और समर्पण पर निर्भर है। ऐसे में संसद में आसन की भूमिका फैसिलिटेटर की है, जो पक्ष-विपक्ष को साथ लाने का प्रयास करती है। सदन को लेकर राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह ने पत्रिका की वरिष्ठ संवाददाता डॉ. मीना कुमार से खास बातचीत की। उन्होंने कहा संसद में हंगामे या अकल्पनीय दृश्यों के लिए कोई जगह नहीं है।

सवाल- पत्रकारिता से संसद तक की आपकी जो यात्रा रही है, उसके बारे में आपके अनुभव और कैसे आप यहां तक पहुंचे? इसमें किस तरह के सुधार किए?

जवाब- मेरा पत्रकारिता से संसद तक का सफर अनुभवों और सीखों से भरा रहा। शुरुआत राजस्थान पत्रिका से प्रेरणा लेकर हुई, जहां से मैंने पत्रकारिता के मूल तत्वों को समझा। 1975 में आपातकाल के बाद, टाइम्स ऑफ इंडिया समूह में बतौर ट्रेनी पत्रकार जुड़ने का अवसर मिला। कुलिश जी की पुस्तक ‘करवां बनता गया’ ने मेरे पत्रकारिता के नजरिए को गहराई दी। बाद में प्रभात खबर से जुड़ने पर क्षेत्रीय अखबारों की ताकत और समाज पर उनके प्रभाव को महसूस किया।

बिहार आंदोलन और जयप्रकाश नारायण के विचारों से प्रभावित होकर पत्रकारिता को सामाजिक बदलाव का माध्यम बनाने का निर्णय लिया। टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुभव ने पेशेवर और तकनीकी कौशल को निखारा। हालांकि, मुंबई की भीड़भाड़ से अलग होकर, बिहार लौटकर प्रभात खबर में जुड़ना और समाज की समस्याओं के लिए आवाज उठाना मेरे करियर का निर्णायक मोड़ था। 27 साल के अनुभव के बाद, पत्रकारिता से राजनीतिक यात्रा शुरू हुई। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के आग्रह पर 2014 में राज्यसभा सदस्य बना और 2018 में एनडीए के समर्थन से उपसभापति पद तक पहुंचा।

सवाल- आपने राज्यसभा में कार्यकाल की शुरूआत कैसे की? इसमें प्रमुख बदलाव और सुधार क्या किए?

जवाब-राज्यसभा की कार्यप्रणाली और लोकतंत्र में उसकी भूमिका पर चर्चा बेहद महत्वपूर्ण है। आज भी देश के अधिकांश नागरिक नहीं जानते कि राज्यसभा और लोकसभा कैसे काम करते हैं। एक पढ़ा-लिखा वर्ग ही इसकी जानकारी रखता है। आजादी के बाद राज्यसभा के लिए जो नियम बनाए गए थे, उनमें अब तक 13 संशोधन हुए हैं, जिनमें से अधिकांश कांग्रेस के शासनकाल में हुए। 2014 के बाद से कोई नया संशोधन नहीं हुआ है।

राज्यसभा और लोकसभा का संचालन उन्हीं पुराने नियमों के अनुसार होता है। किसी भी संशोधन के लिए सभी दलों की सहमति आवश्यक होती है, जो एक जटिल प्रक्रिया है। जब मैं 2014 में राज्यसभा आया, तो प्रणब मुखर्जी जी से मिलने का अवसर मिला। उन्होंने मुझे एक सांसद के तौर पर सीख दी कि संसद के नियमों और प्रक्रियाओं को समझने के लिए समय देना चाहिए। संसद देश की ध्वनि का प्रतिनिधित्व करती है और यह “इल्डर्स हाउस” के रूप में जानी जाती है।

राज्यसभा का गठन इसलिए हुआ कि यहां ऐसे लोग आएं, जो राजनीति की आपाधापी से दूर हों और अपने क्षेत्रों के विशिष्ट जानकार हों। इसका उद्देश्य है कि यदि लोकसभा में किसी जल्दबाजी में कानून बनता है, तो राज्यसभा में उसे गहराई से परखा जा सके। यह “हाउस ऑफ काउंसिल” के रूप में नेशन बिल्डिंग में योगदान देता है। संविधान सभा की बहसों में तय किया गया था कि राज्यसभा में ऐसे लोग हों, जो अपने-अपने क्षेत्रों में पारंगत हों और श्रेष्ठ बहस कर सकें। यह संसद, लोकतंत्र प्रणाली का सबसे बड़ा मंदिर है, जो देश के विकास और लोकतंत्र को मजबूत बनाने में सहायक है।

सवाल- आपने इसमे किस तरह के सुधार और बदलाव किए?

जवाब- संसद में नियमों और प्रक्रियाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है। समय-समय पर इनमें संशोधन और सुधार की आवश्यकता महसूस होती है। इसके लिए व्यापक सहमति और प्रक्रियाओं का पालन करना अनिवार्य है। उदाहरण के तौर पर, वेंकैया नायडू जी के कार्यकाल में अग्निहोत्री कमेटी का गठन हुआ, जिसने 77 कानूनों में संशोधन और 124 नए नियमों को शामिल करने की सिफारिशें कीं। हालांकि, यह कार्य प्रक्रिया की जटिलताओं के कारण आगे नहीं बढ़ सका।

नियम बनाने की प्रक्रिया में सभी दलों और समितियों की सहमति आवश्यक होती है। जनरल पर्पज कमेटी, जिसमें सभी दलों के नेता और राज्यसभा के विशिष्ट सदस्य होते हैं, इन निर्णयों को अंतिम रूप देती है। इस प्रक्रिया में व्यक्तिगत सांसदों का योगदान सीमित होता है, क्योंकि यह सामूहिक सहमति पर आधारित है। संसद में विभिन्न नियम जैसे रूल 110 और 240 का पालन सदस्यों द्वारा अपेक्षित होता है। रूल 110 के तहत, सदस्यों को किसी विधेयक के पक्ष या विपक्ष में ही बोलना चाहिए। इसी तरह, रूल 240 में विषय से हटकर बोलने पर चेयरमैन का हस्तक्षेप होता है।

अन्य नियमों के तहत बहस के दौरान सदस्य पुस्तकों या समाचार पत्रों का अध्ययन नहीं कर सकते और सदन में अनुशासन बनाए रखना अनिवार्य है। सदन के अनुशासन और प्रक्रियाओं के पालन में किसी भी प्रकार की लापरवाही को चेयरमैन रोक सकते हैं। उदाहरण के लिए, रूल 235 में स्पष्ट है कि सदस्यों को बहस के दौरान व्यवधान उत्पन्न नहीं करना चाहिए। यह नियम लोकतांत्रिक संस्थानों की गरिमा बनाए रखने में सहायक होते हैं। सोशल मीडिया पर नियमों के पालन से संबंधित गलतफहमियां अक्सर फैलती हैं। कई बार यह प्रचार किया जाता है कि सदन में बोलने से रोका गया, जबकि यह संबंधित नियमों के तहत होता है।

यह आवश्यक है कि देश के नागरिक इन नियमों को समझें और उनके महत्त्व को स्वीकारें। नियमों में सुधार के प्रयास लगातार किए जाते रहे हैं। जगदीप धनखड़ जी ने भी चेयरमैन के रूप में नियमों को अद्यतन करने की पहल की। ऑल इंडिया स्पीकर कांफ्रेंस जैसे मंच पर भी सुधारों पर चर्चा होती है। परंतु, नियमों में बदलाव एक दीर्घकालिक और सहमति-आधारित प्रक्रिया है, जिसे सुचारू रूप से आगे बढ़ाने के लिए सभी दलों का सहयोग आवश्यक है।

सवाल- राज्य सभा में विपक्ष और सरकार के बीच संवाद की प्रक्रिया सही हों, उसके लिए आपने किस तरह के प्रयास किए हैं?

जवाब- लोकतंत्र की सफलता संवाद, सहमति और समर्पण पर निर्भर करती है। संसद में चेयर की भूमिका केवल फैसिलिटेटर की होती है, जो पक्ष-विपक्ष को साथ लाने का प्रयास करती है। चेयर के अधिकार सीमित होते हैं, और उसकी मर्यादा प्रेस कांफ्रेंस न करने की भारतीय परंपरा से जुड़ी है। यह परंपरा लोकतंत्र की गरिमा को बनाए रखने में सहायक है।

संसद में होने वाले बहस और चर्चाओं की प्रक्रिया बिजनेस एडवाइजरी कमेटी के माध्यम से तय होती है। इस कमेटी में सभी दलों के सदस्य मिलकर बहस के लिए समय आवंटित करते हैं। हाल के वर्षों में राष्ट्रपति अभिभाषण पर चर्चा का समय बढ़ा है, लेकिन इसका सदुपयोग पक्ष-विपक्ष की सामूहिक जिम्मेदारी है। सरकार पर समयबद्ध डिलीवरी का जनदबाव होता है, क्योंकि वह लोकसभा से चुनी जाती है और जनता के प्रति जवाबदेह है। यदि संसद में किसी मुद्दे पर बहस या निर्णय नहीं होता, तो इससे सरकार की कार्यक्षमता प्रभावित होती है। इसी कारण, संसद में बेहतर और गंभीर चर्चा की आवश्यकता होती है।

कमेटियों की गोपनीयता बनाए रखना भी आवश्यक है, क्योंकि वहां विचार-विमर्श बिना बाहरी दबाव के होता है। दुर्भाग्यवश, कभी-कभी सदस्य गोपनीय मुद्दों को मीडिया में ले जाते हैं, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया बाधित होती है। लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए नागरिकों को संसदीय प्रक्रिया से परिचित कराना होगा। देशहित में पक्ष-विपक्ष को साथ आकर समाधान निकालना होगा। चेयर केवल संवाद का माध्यम है; निर्णय की जिम्मेदारी राजनीतिक दलों पर है। लोकतंत्र तभी सशक्त होगा जब संसद में स्वस्थ बहस और सामूहिक निर्णय प्रक्रिया को प्राथमिकता दी जाएगी।

सवाल- जिस तरह से हंगामे, कामकाज में बाधा हो रही है उससे लोकतांत्रिक व्यवस्था किस तरह से प्रभावित होती है। या विपक्ष ने उसमें अड़चन पैदा की या सत्ता पक्ष काम नहीं करना चाहता। तो दोनों के बीच लोकतांत्रिक व्यवस्था किस तरह प्रभावित होती है।

जवाब- संसद का उद्देश्य हंगामे या अकल्पनीय दृश्यों के लिए नहीं है। इसे मर्यादित ढंग से चलाना चाहिए। जब संविधान बना, तब भारत हजारों वर्षों बाद एक देश के रूप में उभर रहा था। विभिन्न भाषाओं, संस्कृतियों और पृष्ठभूमियों के लोग एकत्र हुए। संविधान निर्माण की प्रक्रिया दो साल, 11 महीने और 166 दिन चली। ड्राफ्ट पर 114 दिनों तक गहन चर्चा हुई, जिसमें 2473 संशोधन पेश किए गए और बिना किसी व्यवधान के विस्तार से बहस हुई। डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था कि संविधान निर्माण के दौरान कभी मतदान या लॉबिंग की जरूरत नहीं पड़ी।

डॉ. अंबेडकर ने भी चेताया था कि यदि दल अपनी राजनीति को संविधान से ऊपर रखेंगे, तो यह दिन संविधान के लिए बुरा होगा। उन्होंने यह भी कहा कि हर पीढ़ी को अपने समय के अनुसार नए कानून बनाने का अधिकार है, लेकिन नैतिकता और चरित्रहीनता से राजनीति कमजोर होगी। आज हम संविधान का पालन कितना करते हैं? संसद में प्रधानमंत्री या विपक्ष के नेता को बोलने नहीं दिया जाता। ये दृश्य संविधान की मूल भावना के विपरीत हैं। भारत का संविधान, विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान, सर्वसम्मति से देशहित को प्राथमिकता देकर बनाया गया। डॉ. अंबेडकर और उनके साथियों ने इसे श्रेष्ठ बनाया। उन्होंने कहा था, “संविधान अच्छा या बुरा नहीं होता, उसे चलाने वाले लोग होते हैं।” चरित्रवान और नैतिक लोग एक कमजोर संविधान को भी महान बना सकते हैं। आज जरूरत है कि हम संविधान के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझें और उसका पालन करें।

सवाल- आपका मानना है कि सभा में लगातार हंगामे की वजह से संसद की छवि कहीं न कहीं प्रभावित हो रही है? तो सांसदों की जवाबदेही तय करने के लिए कुछ सख्त कदम उठाने की आवश्यकता होगी?

जवाब- मैं गांधीजी का अनुयायी हूं. गांधीजी ने 1929 में कहा था कि अनुशासन को न मानना सबसे बड़ी हिंसा है। यह बात आज के परिप्रेक्ष्य में बेहद प्रासंगिक है, खासकर जब विधायिका और संसद के भीतर अनुशासनहीनता का माहौल देखने को मिलता है। हमारे संविधान को तैयार करने वाले महान विचारकों ने विभिन्न पृष्ठभूमियों से होने के बावजूद सहमति और सर्वसम्मति से इसे बनाया। लेकिन हमने उनकी “स्प्रिट” नहीं अपनाई। आज संसद और विधानसभाओं में जो दृश्य दिखते हैं, वे लोकतंत्र के प्रति आम जनता की आस्था को कमज़ोर कर रहे हैं। लोकतंत्र, जो अब तक की सबसे श्रेष्ठ व्यवस्था मानी गई है, अनुशासनहीनता के कारण संकट में है। यह विधायिका को उसकी गरिमा से गिरा रहा है। पंडित नेहरू ने 1952 में राज्यसभा के पहले सदस्यों को विदा करते समय कहा था कि यहां का आचरण पंचायतों और विधानसभाओं तक पहुंचेगा।

अगर यहां अनुशासन नहीं होगा, तो पूरे लोकतंत्र की संस्कृति बिगड़ेगी। राजनीति में नैतिकता और अनुशासन आवश्यक हैं। हमारे संविधान सभा के सदस्य इसका जीता-जागता उदाहरण थे। आज जरूरत है कि हम उसी आदर्श का पालन करें। कुरियन साहब ने सही कहा था कि चेयर का काम बेहद चुनौतीपूर्ण है। अगर सदस्य खुद अनुशासित न हों, तो चेयर की कार्यवाही भी विवाद का मुद्दा बन जाती है। देश के युवाओं के साथ न्याय करना है, तो हमें विधायिका को उसकी गरिमा में बनाए रखना होगा। संविधान को सर्वोपरि मानना होगा, न कि निजी और राजनीतिक विचारों को। जैसे महाभारत और गीता में कहा गया है, राजा जैसा आचरण करता है, प्रजा वैसा ही करती है। इसलिए हमारा आचरण ही लोकतंत्र की ताकत है।

सवाल- आपके अनुसार राज्य सभा का भविष्य किस दिशा में जाना चाहिए, इसमें सुधार के लिए किस तरह के प्रयास किए जाने चाहिए?

जवाब- देखिए, राज्यसभा में होने वाली बहसों की गुणवत्ता पर गौर करें। हर पक्ष में ऐसे वक्ता हैं जो बेहद प्रभावशाली तरीके से अपनी बात रखते हैं। यह परंपरा पहले भी थी, लेकिन लोकतंत्र में बहसों का स्तर 65-67 के बाद तेजी से गिरने लगा। इस गिरावट को रोकने की जिम्मेदारी राजनीतिक दलों की है। दलों को समझना चाहिए कि देश को मजबूत बनाने के लिए सर्वसम्मति की राजनीति, विशेषकर राष्ट्रीय हित में, आवश्यक है। आज की दुनिया में आर्थिक और तकनीकी शक्ति बेहद महत्वपूर्ण हैं।

अगर कोई देश आर्थिक और तकनीकी रूप से मजबूत है, तो पूरी दुनिया उसका समर्थन करती है। इसके विपरीत, कमजोर स्थिति में भविष्य पर सवाल उठते हैं। राजनीतिक दलों को इस वैश्विक वास्तविकता को समझते हुए देश को आर्थिक और तकनीकी रूप से सबल बनाने पर जोर देना चाहिए। यही आज के युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है।

सवाल- आपका मानना है कि तकनीकी और डिजिटल साधनों की उपयोगिता से भी राज्य सभा की कार्यवाही बेहतर बनाई जा सकती है?

जवाब- 2014 के बाद संसद में डिजिटलीकरण ने जो रफ्तार पकड़ी है, वह अद्वितीय और अनुकरणीय है। लेकिन यह सिर्फ शुरुआत है। हमें यह सोचने की जरूरत है कि हर सांसद अपने देश के प्रति और सकारात्मक दृष्टिकोण कैसे अपनाए। भविष्य हमारे सामने है, जिसे हमें मिलकर गढ़ना होगा। मैं गांधीवादी हूं और मानता हूं कि केवल भौतिक समृद्धि से कुछ नहीं होता। भौतिक समृद्धि आवश्यक है, लेकिन इसके साथ भारतीय संस्कृति और मूल्यों का भी विकास होना चाहिए। हमारी प्राथमिकता आर्थिक समृद्धि होनी चाहिए, क्योंकि इसके बिना समस्याओं का समाधान संभव नहीं।

हाल ही में इतिहासकार युवल नोआ हरारी भारत आए थे। उन्होंने एआई के फायदे और खतरों पर बात की। उनका कहना है कि एआई एक वरदान तो है, लेकिन यह अभिशाप भी बन सकता है, खासकर जब इसका दुरुपयोग नकारात्मक सोच वाले लोग करें। उन्होंने चेताया कि भविष्य में ऑटोनॉमस हथियार सेनाओं की भूमिका खत्म कर सकते हैं। यह नई दुनिया हमारी सोच और भारतीय पद्धति के लिए एक चुनौती है। भारत ने 2014 के बाद तकनीकी क्षेत्र में बड़ी प्रगति की है, लेकिन यह यात्रा 30-40 साल पहले शुरू होनी चाहिए थी। हरारी ने बताया कि वर्तमान में अमेरिका और चीन एआई की दौड़ में सबसे आगे हैं। हमें यह समझने की जरूरत है कि तकनीकी विकास के साथ-साथ हमें अपने मूल्यों को भी सहेजना होगा। सोशल मीडिया का प्रभाव भी चिंता का विषय है।

हरारी ने कहा कि वे मोबाइल का कम इस्तेमाल करते हैं, क्योंकि यह निर्णय क्षमता को प्रभावित करता है। उन्होंने जोर दिया कि जंक इंफॉर्मेशन हमारे दिमाग के लिए वैसी ही हानिकारक है, जैसे जंक फूड सेहत के लिए। अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में बच्चों के लिए सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगाया गया है, लेकिन हमारे यहां इस पर चर्चा भी नहीं होती। प्रधानमंत्री ने इंफॉर्मेशन फास्टिंग का सुझाव दिया था, लेकिन इसे अमल में लाने के लिए राजनीतिक दलों को एकजुट होना होगा। हमें भारतीय मूल्यों और ज्ञान को अपनाकर नई पीढ़ी के लिए एक स्वस्थ और जागरूक समाज का निर्माण करना होगा।

Harivansh Narayan Singh

सवाल- जिस तरह से आप कह रहे हैं कि बहुत सारी चीजों में सुधार होना चाहिए, तो भारतीय राजनीतिक की समृद्धि के लिए कौन कौन से मुख्य मुद्दे हो सकते हैं? जिन पर सभी दलों के सांसदों को बात करनी चाहिए?

जवाब- भारत की आर्थिक ताकत को लेकर एक स्पष्ट दृष्टिकोण हमें चाहिए। चाहे सरकार कोई भी हो, हमें याद रखना चाहिए कि आदरणीय मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री रहते हुए हमेशा यही कहा था कि आर्थिक रूप से मजबूत बनना देश का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए। 1947 से लेकर आज तक हम एक लंबा सफर तय कर चुके हैं, लेकिन 2014 के बाद ही यह स्पष्ट दिशा मिलनी शुरू हुई, जिससे भारत की आर्थिक स्थिति में महत्वपूर्ण सुधार आए।

भारत आज दुनिया के सबसे बड़े देश के रूप में खड़ा है, हमारी आबादी 143 करोड़ के पार हो चुकी है। यह संख्या किसी और देश की आबादी से कहीं अधिक है, और अगर क्षेत्रफल की बात करें तो हम छठे या सातवें स्थान पर हैं। क्षेत्रफल में हमसे पांच गुना बड़े देशों की आबादी 30 से 35 करोड़ तक है, जबकि चीन को छोड़कर कोई देश हमसे ज्यादा बड़ा नहीं है। हालांकि, जनसंख्या कम होने के विचार से मैं सहमत हूं, पर सवाल यह है कि इतने बड़े देश में हम किस तरह से आने वाले वर्षों में नौकरियां उत्पन्न करेंगे?

भारत का भविष्य केवल आर्थिक विकास में निहित है। इस विकास की दिशा समता और न्यायपूर्ण होनी चाहिए, ताकि हर वर्ग को इसका फायदा मिले। यह न केवल केंद्र सरकार का, बल्कि राज्य सरकारों का भी दावा है। याद कीजिए, 1977 और 1980 के बीच भारत और चीन समान स्थिति में थे। 1948 में भारत और चीन ने विकास यात्रा शुरू की थी, लेकिन 1977 से चीन ने तेजी से बदलाव किया और आगे बढ़ गया, जबकि भारत पीछे रह गया। इसका जिम्मेदार कौन था? राजनीतिक दलों और नेताओं को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जो देश की आर्थिक स्थिति को सुधारने में विफल रहे। 1977 में चीन में एक व्यक्ति सत्ता में आया और उसने दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक ताकत बनने का संकल्प लिया, जिसे उसने हासिल किया।

अब 14 के बाद आर्थिक प्रगति तेजी से हो रही है। भारत ने डिजिटल पेमेंट के क्षेत्र में दुनिया भर में एक प्रमुख स्थान बनाया है, और हमारी जीडीपी अब लगभग 4 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचने वाली है। एआई, टेक्नोलॉजी और डिजिटल ट्रांसफॉर्मेशन ने हमारे विकास को नई दिशा दी है। इन तकनीकी सुधारों के कारण सरकार ने भ्रष्टाचार पर कड़ा प्रहार किया है। उदाहरण के तौर पर, 2023 तक लगभग 6 करोड़ फर्जी राशन कार्ड निरस्त किए गए और सवा चार करोड़ फर्जी गैस कनेक्शन हटाए गए। कृषि मंत्रालय द्वारा पीएम किसान सम्मान निधि के तहत 2.11 करोड़ अयोग्य लाभार्थियों को हटाया गया। इन सुधारों से सरकार ने लाखों करोड़ों रुपये बचाए हैं और आम जनता को वास्तविक लाभ पहुंचाया है।

आज, भारत में युवा नौकरियों के बजाय जॉब गिवर्स बन रहे हैं। स्टार्टअप्स की संख्या बढ़ी है और उनके शोध ने दुनिया को हैरान कर दिया है। एआई, जो अब विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है, हमारे देश के भविष्य को आकार दे सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इन नई तकनीकों के साथ ही भारत का विकास संभव है। अगर हम सांसदों और नेताओं को एक मंच पर लाकर बिना किसी आरोप-प्रत्यारोप के इस पर विचार विमर्श करें, तो हम निश्चित रूप से एक समृद्ध और आर्थिक रूप से ताकतवर राष्ट्र बना सकते हैं।

सवाल-भारत के युवाओं और छात्रों को जागरूक करने के लिए संसद में सदन का कुछ प्रयास रहता है क्या?

जवाब- हाल ही में वन नेशन, वन इलेक्शन के प्रस्ताव पर चर्चा चल रही है, और मुझे उम्मीद है कि इससे समृद्ध बहस होगी। यह वही विचार है जिसे बाबा साहब अंबेडकर ने भी समर्पित किया था। अब पूर्व राष्ट्रपति कोविंद की अध्यक्षता में आई रिपोर्ट में इस प्रस्ताव के आर्थिक प्रभाव पर चर्चा की गई है, जिसमें कहा गया है कि वन नेशन, वन इलेक्शन से देश का जीडीपी डेढ़ प्रतिशत बढ़ सकता है। यह विशेषज्ञों द्वारा कही गई बात है, लेकिन इस पर व्यापक बहस होना चाहिए ताकि सभी पक्षों की राय सामने आ सके।

इस संदर्भ में कार्तिक मुरलीधरन, जो अमेरिका में एक जाने-माने अर्थशास्त्री हैं, ने अपनी किताब में राज्य के विकास के रास्तों पर प्रकाश डाला है। उन्होंने यह भी बताया कि कुछ राज्य तेज़ी से आगे बढ़ते हैं, जबकि कुछ पीछे रह जाते हैं, और उन्होंने व्यवहारिक उदाहरणों से इसे समझाया है। इसके अलावा, आईएमएफ के कार्यकारी निदेशक कृष्ण मूर्ति ने भी कहा है कि यदि राज्य और केंद्र अपनी नीतियों को और प्रभावी ढंग से लागू करें, तो यह विकास दर को एक प्रतिशत बढ़ा सकता है।

भारत आज दुनिया के सबसे तेज़ी से बढ़ते हुए देशों में शामिल है, और आईएमएफ सहित शीर्ष अर्थशास्त्रियों का कहना है कि दो बड़े कदमों से देश की अर्थव्यवस्था में 8-9 लाख करोड़ रुपए का इजाफा हो सकता है। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प के कार्यकाल में भी इस तरह की पहलें की गई थीं, और अब हमें भी राष्ट्रीय हित में इस पर गंभीर विचार करना चाहिए।

इसी बीच, युवा पीढ़ी के लिए एक अहम विषय है कि कैसे वे भारतीय लोकतंत्र के प्रति जागरूक हों। 2014 के बाद संसद में युवाओं की भागीदारी बढ़ी है। पहले संसद में फ्लोरल ट्रिब्यूट्स केवल रस्म बन कर रह गए थे, लेकिन अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सुझाव पर यह युवा पीढ़ी के साथ जोड़ा जा रहा है। युवाओं को भारत के महान नेताओं के योगदान को समझने का अवसर मिल रहा है, और उन्हें संसद के कामकाज से जोड़ने के लिए विभिन्न कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं।

राज्यसभा में इंटर्नशिप, संसद टीवी पर गुणवत्ता सुधार, और लाइब्रेरी का डिजिटल विस्तार, इन सभी प्रयासों से युवा अब संसद और राजनीति के कार्यों को समझने में सक्षम हो रहे हैं। यह बदलाव भविष्य में भारतीय राजनीति और समाज में सकारात्मक असर डालेंगे।

सवाल- आपके लिए संसद में सबसे चुनौतीपूर्ण और संतोषपूर्ण क्या रहा है?

जवाब- हमारे लिए संसद में सबसे अच्छा समय वह होता है जब सबसे अच्छी बहस हो, एक ऐसी अनुभूति जो यह महसूस कराती है कि हम सबने मिलकर देश के लिए कुछ योगदान किया। जब अवसर मिलता है, तो राज्यसभा में ऐसे संवाद होते हैं। मैं बार-बार कह रहा हूं कि राज्यसभा में ऐसी चीजें होती हैं। खासतौर पर इस पद पर आने के बाद, मैंने हर दिन को चुनौतीपूर्ण माना और सोचा कि हम कामकाज को कैसे गतिरोध के बिना आगे बढ़ा सकते हैं।

हमने इस पर गंभीरता से काम किया और प्रक्रिया को समझने का प्रयास किया। लेकिन सबसे दुखद क्षण वह है जब संसदीय समय का बर्बाद होना देखा जाता है। अगर कुछ सदस्यों के कारण संसद नहीं चलती, तो लगता है कि यह बाकी सदस्यों का हनन है। जब हम सांसद के तौर पर बैठते थे, तो आमतौर पर सभी सांसद एक विचारधारा रखते थे, लेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं जिनका सोचने का तरीका अलग होता है, और यह उनके खड़े होने का कारण बनता है। लेकिन उन्हें अपनी बात कहने का अवसर तभी मिलता है जब संसद चले।

कोविड के दौरान जो चुनौतीपूर्ण समय था, वह भी बहुत कठिन था। इसी दौरान कृषि बिल पास हुआ, जिसके बारे में मैं पहले कभी कुछ नहीं बोला। उस दिन मैं चेयर पर था और देशभर में कयास लगाए गए, लेकिन मैंने चुप रहकर काम किया। कई लोग नियमों और कानूनों से परिचित नहीं होते हैं या जानकर भी अपने हित में उनका गलत व्याख्या करते हैं। मैं आज भी आपसे कहता हूं कि उस दिन की पूरी बहस देखें, जब सत्र की अवधि घटाई गई थी, फिर भी चार घंटे तक किसान बिल पर बहस हुई।

33 सदस्य, ज्यादातर विपक्ष से, इसमें भाग लिया। मैंने सदस्यों से कई बार कहा कि वे अपनी सीट पर बैठकर रिजर्वेशन मूव करें, क्योंकि यही नियम है। फिर भी, जब डिवीजन के लिए बात आई, तो कुछ लोग बेल में खड़े हो गए। मैंने रिकार्ड पर कहा था कि हमें डिवीजन कराना चाहिए और यह नियमों के अनुसार होना चाहिए।

जब श्रेष्ठ बहस होती है, तो सदन का वातावरण बहुत अच्छा होता है। विपक्ष का काम है प्रपोजल का विरोध करना, लेकिन यह जरूरी है कि हाउस में कार्यवाही अवरुद्ध न हो। हमारे काम का उद्देश्य यह है कि सदन में अच्छी बहस हो, चाहे वह किसी भी पक्ष में हो।

मैं मानता हूं कि हाउस तब बेहतर चलता है जब प्रमुख सदस्य, जैसे गुलाम नबी आजाद, शरद पवार, और अन्य लोग बोलते हैं। जब इन नेताओं ने बहस की, तो सदन की कार्यवाही बहुत अच्छे तरीके से चलती थी। पुराने अप्रसांगिक कानूनों को खत्म करना हमारी जिम्मेदारी है, ताकि देश आधुनिक बन सके। सभी पक्षों के सहयोग से हाउस को अच्छे से चलाने की कोशिश हमेशा जारी रहती है, और यह सुनिश्चित करना कि संसदीय कार्यवाही व्यवस्थित हो, हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए।

Harivansh Narayan Singh

सवाल- सांसदों द्वारा ज्यादा से ज्यादा भागीदारी हो, उनकी भागीदारी बढ़ाने के लिए भी आपकी ओर से कोई प्रयास किए गए?

जवाब- देखिए, राज्यसभा और लोकसभा के कार्य संचालन के लिए एक निश्चित पद्धति है, जो रूल्स और प्रोसीजर पर आधारित है। इन नियमों में बदलाव केवल सभी की सहमति से संभव होता है, जैसा कि मैंने आपको विस्तार से समझाया है। पहले की व्यवस्था में बहस का समय छह घंटे था, लेकिन अगर 12 घंटे तक बहस की आवश्यकता हो तो वह भी हो सकती है। उदाहरण के लिए, उत्तर पूर्व के राज्यों के बजट पर बहस के दौरान तीन घंटे का समय निर्धारित किया गया था, लेकिन कुल मिलाकर छह घंटे की बहस हुई। जहां संभव हो, चेयर कोशिश करता है कि सभी पक्ष मिलकर काम कर सकें।

समस्या तब आती है जब दोपहर के बाद अधिकांश कानूनों पर बहस का समय होता है और सांसदों की संख्या कम हो जाती है। इस स्थिति में चेयर अपील करता है, लेकिन अंतत: सांसदों की अपनी नैतिक जिम्मेदारी होनी चाहिए। समय का निर्धारण बिजनेस एडवाइजरी कमेटी करती है, जिसमें सभी की सहमति बनती है। हालांकि, कई बार उदारता दिखाते हुए, चेयर समय बढ़ाता है। बहस के दौरान गुणवत्ता का ध्यान रखना महत्वपूर्ण होता है। संसद की बहस में सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करनी चाहिए, और समय का पालन करना आवश्यक है।

सवाल- राज्यसभा के उपसभापति होने के नाते आप किस प्रकार की नीतियों और कानूनों को विशेष प्राथमिकता देते हैं?

जवाब- देखिए, कानून और नीतियों को प्राथमिकता देने का बुनियादी काम सरकार का है। इसमें चेयर का कहीं हस्तक्षेप नहीं है। क्योंकि नीतियां सरकारें बनाती हैं। हम सारे सांसद अगर अच्छी तरह से देखें कि हम बहस अच्छी करने लगें, खासतौर से देश के भविष्य से जुड़े जो मुद्दें हो, पक्ष और विपक्ष दोनों। तो उसका असर देश में जाएगा।

सवाल- आखिरी सवाल, पार्टी के प्रति आपकी निष्ठा और राज्यसभा के उपसभापति के कर्तव्यों के बीच आप कैसे संतुलन बना पाते हैं?

जवाब- हमारे यहां एक पुरानी परंपरा है कि स्पीकर, डिप्टी स्पीकर और डिप्टी चेयरमैन जब अपने पद पर होते हैं तो वे सक्रिय राजनीति से अलग रहते हैं। यह परंपरा खासकर डिप्टी चेयरमैन पद पर 2018 तक रही, जब कांग्रेस के लोग इस पद पर थे। 1977 में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनी, उसके बाद 1990 में बीपी सिंह की सरकार आई, फिर चंद्रशेखर, देवगौड़, गुजराल और अटल जी की सरकारें आईं।

नजमा हेपतुल्ला और कुरियन साहब लंबे समय तक डिप्टी चेयरमैन रहे। इन सभी पदों को दल से ऊपर माना गया है। 2014 में एनडीए सरकार के आने के बाद 2018 तक कुरियन साहब ने यह पद संभाला। इन सभी पदों का उद्देश्य राजनीति से परे न्याय करना है।

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