भारत में हर साल बड़े ही धूमधाम से होली का त्योहार मनाया जाता है। सतयुग से ही होली की परंपरा चली आ रही है। आज भले ही जमाने के साथ होली ने खुद को मॉडिफाई कर किया हो। मगर क्या आपको ये मालूम है कि बुराई पर अच्छाई की जीत का त्योहार होली की शुरुआत कहीं और से नहीं बल्कि बिहार के पूर्णिया जिले के बनमनखी के सिकलीगढ़ धरहरा से हुई। भक्त प्रहलाद को दैत्य पिता हिरण्यकश्यप और वरदानी होलिका से बचाने जहां भगवान विष्णु ने स्तंभ फाड़ नरसिंह अवतार लिया, माणिक्य स्तंभ नाम का वो खंभा आज भी यहां मौजूद है। श्रद्धालु सीकेश यादव बताते हैं कि यहां सभी मन्नतें पूरी हो जाती है। होली की पूर्व संध्या होलिका दहन के मौके पर इस मंदिर में धूरखेल होली खेलने वालों की मुरादें सीधे भगवान नरसिंह तक पहुंचती है. इस वजह से होली के मौके पर यहां लाखों श्रद्धालुओं की भीड़ होली खेलने और भगवान नरसिंह के दर्शन के लिए जुटती है। आज भी असुर हिरण्यकश्यप का ऐतिहासिक किला है राजधानी पटना से मंदिर की दूरी तकरीबन 360 किलोमीटर है। जबकि पूर्णिया शहर से बनमनखी प्रखंड स्थित प्रहलाद मंदिर तक का फासला तकरीबन 35 किलोमीटर है। महेशखूंट-मधेपुरा पूर्णिया NH 107 से लगा नरसिंह द्वार पौराणिक ग्रंथों में वर्णित उसी धरहरा गांव के प्रहलाद नगर तक ले जाता है, जहां प्रसिद्ध नरसिंह मंदिर है। यहां आज भी असुर हिरण्यकश्यप का ऐतिहासिक किला है। जो बिहार के पर्यटन विभाग के उदासीन रवैए की वजह से जर्जर अवस्था में है। वहीं यहां बचे अवशेषों में एक बड़ा घड़ा, एक रहस्यमयी कुआं भी है, जिससे जुड़े कई किस्से कभी यहां बहने वाली हिरण नाम की नदी से जुड़ी है। खुदाई में पुरातात्विक महत्व के सिक्के और कौड़ियां मिली थी। इसके बाद स्थानीय प्रशासन ने इसके आसपास खुदाई पर रोक लगा दी। परिसर में मौजूद प्रहलाद स्तंभ और आज भी लोगों के लिए रहस्य बनी हुई है। स्तंभ का अधिकांश हिस्सा जमीन में गड़ा है और इसकी लंबाई करीब 1411 इंच है। कहा जाता है कि इसे कई बार तोड़ने का प्रयास किया गया। मुगलों ने हाथियों की मदद से इसे उखाड़ने की कोशिश की गई, इससे ये टूटा तो नहीं, लेकिन ये स्तंभ झुक गया। यहां पौराणिक ग्रंथों में वर्णित वो गुफा भी मौजूद हैं, जिस गुफा में बैठकर हिरण्यकश्यप भगवान शिव को प्रसन्न करगहरी तपस्या में लीन हुआ करता था। हालांकि पुरातत्व विभाग इसे लेकर अध्ययन कर रहा है। जिस कारण लोगों को गुफा के अंदर जाने की मनाही है। दैनिक भास्कर से बात करते हुए प्रहलाद मंदिर के विशेष पुजारी अमोल कुमार झा बताते हैं कि होली की शुरुआत सतयुग में हुई। इस युग में भगवान विष्णु ने भक्तों के कल्याण के लिए अपने अंश प्रहलाद को असुरराज की पत्नी कयाधु के गर्भ में भेज दिया। जन्म से ही भक्त प्रहलाद विष्णु के भक्त थे। दैत्य हिरण्यकश्यप अपने पुत्र भक्त प्रहलाद को दैत्य विद्या सीखने को कहता। मगर प्रहलाद इसके विपरीत भगवान श्रीहरि की भक्ति में लीन रहते। जिससे हिरण्यकश्यप उसे अपना शत्रु समझने लगा। दैत्य पिता ने अपने पुत्र को खत्म करने के होलिका के साथ प्रहलाद को अग्नि में जलाने की योजना बनाई। होलिका के पास एक ऐसी चादर थी जिसपर आग का कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता था। योजना के अनुसार हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका को वही चादर लपेटकर प्रहलाद को गोद में बैठाकर आग जला दी। भक्त प्रहलाद बच गए और तेज़ हवा ने होलिका की चादर उड़ा दी, जिससे वो अग्नि में जल गई। भक्त की रक्षा के लिए खुद भगवान विष्णु को चौथा अवतार धारण करना पड़ा। वहां मौजूद खम्भा से भगवान विष्णु स्तंभ फाड़कर नृसिंह अवतार में प्रकट हुए और हिरण्यकश्यप का वध किया। आज भी ये खंभा मंदिर परिसर में माणिक्य स्तंभ के नाम से मौजूद है। कीचड़ और मिट्टी से होली खेलने की चली आ रही है परंपरा शिक्षाविद अवधेश कुमार साह दैनिक भास्कर से बात करते हुए कहते हैं कि ऐसी मान्यता है कि होलिका जिस अग्नि में भस्म होकर राख में तब्दील हो गई थी। बुराई पर अच्छाई की इस जीत को तब लोगों ने इसी राख को उड़ाकर कीचड़ के साथ खेली। तब से लेकर आज तक यहां होलिका दहन की संध्या पर होलिका दहन के बाद बचे राख और कीचड़ और मिट्टी से होली खेलने की परंपरा चली आ रही है। होलिका दहन के समय लाखों लोग पहुंचते हैं। होलिका दहन की परम्परा को देखने इस ऐतिहासिक स्थल पर हर साल विदेशी सैलानी आते हैं। राख, मिट्टी और कीचड़ से होने वाली धुरखेल होली खेलते हैं। यहां कई फिल्मों की शूटिंग भी यहां हो चुकी है। बनमनखी से भाजपा के विधायक कृष्ण कुमार ऋषि ने साल 2017 में बिहार सरकार में पर्यटन मंत्री रहते हुए साल 2017 में इस स्थल को पर्यटन स्थल का दर्जा दिलाया और होली के मौके पर राजकीय समारोह घोषित करवाया। भारत में हर साल बड़े ही धूमधाम से होली का त्योहार मनाया जाता है। सतयुग से ही होली की परंपरा चली आ रही है। आज भले ही जमाने के साथ होली ने खुद को मॉडिफाई कर किया हो। मगर क्या आपको ये मालूम है कि बुराई पर अच्छाई की जीत का त्योहार होली की शुरुआत कहीं और से नहीं बल्कि बिहार के पूर्णिया जिले के बनमनखी के सिकलीगढ़ धरहरा से हुई। भक्त प्रहलाद को दैत्य पिता हिरण्यकश्यप और वरदानी होलिका से बचाने जहां भगवान विष्णु ने स्तंभ फाड़ नरसिंह अवतार लिया, माणिक्य स्तंभ नाम का वो खंभा आज भी यहां मौजूद है। श्रद्धालु सीकेश यादव बताते हैं कि यहां सभी मन्नतें पूरी हो जाती है। होली की पूर्व संध्या होलिका दहन के मौके पर इस मंदिर में धूरखेल होली खेलने वालों की मुरादें सीधे भगवान नरसिंह तक पहुंचती है. इस वजह से होली के मौके पर यहां लाखों श्रद्धालुओं की भीड़ होली खेलने और भगवान नरसिंह के दर्शन के लिए जुटती है। आज भी असुर हिरण्यकश्यप का ऐतिहासिक किला है राजधानी पटना से मंदिर की दूरी तकरीबन 360 किलोमीटर है। जबकि पूर्णिया शहर से बनमनखी प्रखंड स्थित प्रहलाद मंदिर तक का फासला तकरीबन 35 किलोमीटर है। महेशखूंट-मधेपुरा पूर्णिया NH 107 से लगा नरसिंह द्वार पौराणिक ग्रंथों में वर्णित उसी धरहरा गांव के प्रहलाद नगर तक ले जाता है, जहां प्रसिद्ध नरसिंह मंदिर है। यहां आज भी असुर हिरण्यकश्यप का ऐतिहासिक किला है। जो बिहार के पर्यटन विभाग के उदासीन रवैए की वजह से जर्जर अवस्था में है। वहीं यहां बचे अवशेषों में एक बड़ा घड़ा, एक रहस्यमयी कुआं भी है, जिससे जुड़े कई किस्से कभी यहां बहने वाली हिरण नाम की नदी से जुड़ी है। खुदाई में पुरातात्विक महत्व के सिक्के और कौड़ियां मिली थी। इसके बाद स्थानीय प्रशासन ने इसके आसपास खुदाई पर रोक लगा दी। परिसर में मौजूद प्रहलाद स्तंभ और आज भी लोगों के लिए रहस्य बनी हुई है। स्तंभ का अधिकांश हिस्सा जमीन में गड़ा है और इसकी लंबाई करीब 1411 इंच है। कहा जाता है कि इसे कई बार तोड़ने का प्रयास किया गया। मुगलों ने हाथियों की मदद से इसे उखाड़ने की कोशिश की गई, इससे ये टूटा तो नहीं, लेकिन ये स्तंभ झुक गया। यहां पौराणिक ग्रंथों में वर्णित वो गुफा भी मौजूद हैं, जिस गुफा में बैठकर हिरण्यकश्यप भगवान शिव को प्रसन्न करगहरी तपस्या में लीन हुआ करता था। हालांकि पुरातत्व विभाग इसे लेकर अध्ययन कर रहा है। जिस कारण लोगों को गुफा के अंदर जाने की मनाही है। दैनिक भास्कर से बात करते हुए प्रहलाद मंदिर के विशेष पुजारी अमोल कुमार झा बताते हैं कि होली की शुरुआत सतयुग में हुई। इस युग में भगवान विष्णु ने भक्तों के कल्याण के लिए अपने अंश प्रहलाद को असुरराज की पत्नी कयाधु के गर्भ में भेज दिया। जन्म से ही भक्त प्रहलाद विष्णु के भक्त थे। दैत्य हिरण्यकश्यप अपने पुत्र भक्त प्रहलाद को दैत्य विद्या सीखने को कहता। मगर प्रहलाद इसके विपरीत भगवान श्रीहरि की भक्ति में लीन रहते। जिससे हिरण्यकश्यप उसे अपना शत्रु समझने लगा। दैत्य पिता ने अपने पुत्र को खत्म करने के होलिका के साथ प्रहलाद को अग्नि में जलाने की योजना बनाई। होलिका के पास एक ऐसी चादर थी जिसपर आग का कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता था। योजना के अनुसार हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका को वही चादर लपेटकर प्रहलाद को गोद में बैठाकर आग जला दी। भक्त प्रहलाद बच गए और तेज़ हवा ने होलिका की चादर उड़ा दी, जिससे वो अग्नि में जल गई। भक्त की रक्षा के लिए खुद भगवान विष्णु को चौथा अवतार धारण करना पड़ा। वहां मौजूद खम्भा से भगवान विष्णु स्तंभ फाड़कर नृसिंह अवतार में प्रकट हुए और हिरण्यकश्यप का वध किया। आज भी ये खंभा मंदिर परिसर में माणिक्य स्तंभ के नाम से मौजूद है। कीचड़ और मिट्टी से होली खेलने की चली आ रही है परंपरा शिक्षाविद अवधेश कुमार साह दैनिक भास्कर से बात करते हुए कहते हैं कि ऐसी मान्यता है कि होलिका जिस अग्नि में भस्म होकर राख में तब्दील हो गई थी। बुराई पर अच्छाई की इस जीत को तब लोगों ने इसी राख को उड़ाकर कीचड़ के साथ खेली। तब से लेकर आज तक यहां होलिका दहन की संध्या पर होलिका दहन के बाद बचे राख और कीचड़ और मिट्टी से होली खेलने की परंपरा चली आ रही है। होलिका दहन के समय लाखों लोग पहुंचते हैं। होलिका दहन की परम्परा को देखने इस ऐतिहासिक स्थल पर हर साल विदेशी सैलानी आते हैं। राख, मिट्टी और कीचड़ से होने वाली धुरखेल होली खेलते हैं। यहां कई फिल्मों की शूटिंग भी यहां हो चुकी है। बनमनखी से भाजपा के विधायक कृष्ण कुमार ऋषि ने साल 2017 में बिहार सरकार में पर्यटन मंत्री रहते हुए साल 2017 में इस स्थल को पर्यटन स्थल का दर्जा दिलाया और होली के मौके पर राजकीय समारोह घोषित करवाया।
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