होलिका दहन आज:शहर के हर नुक्कड़ व चौक-चौराहों से लेकर गांव तक आज होगा होलिका दहन, पंचांग के मुताबिक होली शनिवार को

होलिका दहन आज:शहर के हर नुक्कड़ व चौक-चौराहों से लेकर गांव तक आज होगा होलिका दहन, पंचांग के मुताबिक होली शनिवार को

पर्व-त्योहारों में होली का खास महत्व है। इसे रंगों के त्योहार के रूप में तो जाना ही जाता है, सामाजिक समरसता, प्रेम, भाइचारे और बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक भी माना जाता है। होलिका दहन की परंपरा बुराई पर अच्छाई की जीत का ही प्रतीक है। शहर हो या गांव, जगह-जगह लकड़ियों का होलिका इकट्ठा किया जाता है। इसे गुरुवार की रात जलाया जाएगा। भागमभाग के दौर में आज लोगों के पास वक्त की कमी है। पहले संवत जलाने के लिए युवाओं की
टोली डफ-डफली की थाप पर मनोविनोद के गीत गाते हुए लकड़ियां, गोइठी, चिपरी आदि घर-घर जाकर मांगती थी। गाती थी-‘हे जजमानी तोर सोने के केवाड़ी, एगो लकड़ी द… एगो गोइठी द… एगो चपरी द… संवत जरावे के दिन आइल हो कि गाव लोगे फगुआ…।’ होलिका दहन कर सामूहिक स्वर में फगुआ (होली गीत) देर रात तक वातावरण में गुंजायमान होता रहता है। अगली सुबह कीचड़-कादो उड़ाने की परंपरा भी है। उसके बाद दोपहर से लेकर देर शाम तक रंगों की होली की धूम मचती है। होली गीत भोजपुरी, मैथिली, ब्रज, राजस्थानी, पहाड़ी, बंगाली आदि अनेक भाषाओं एवं बोलियों में गाए जाते हैं। इसमें देवी देवताओं के होली खेलने से लेकर लोगों के होली खेलने का वर्णन होता है। देवी देवताओं में राधा-कृष्ण, राम-सीता और भोलेनाथ के होली खेलने का वर्णन मिलता है। इन होली गीतों में शास्त्रीयता यथा ध्रुपद, धमार, ठुमरी आदि की झलक होती है तो लोक का जलवा भी होता है। बज्जिकांचल में होली गायन का आरंभ भगवान शिव के होली खेलने से होता है, ‘सोनपुर में रंग लूटे बाबा हरिहरनाथ…।’ आमतौर पर इसे सुमिरन कहा जाता है। इसी कड़ी में राधा कृष्ण की होली का रंग देखिए, ‘आज बिरज में होली रे रसिया…।’ चार-पांच सुमिरन के बाद रस-सिक्त फगुआ गायन का सिलसिला शुरू हो जाता है, ‘केसिया सम्हार जुड़वा बांध गे ननदिया, होली खेले अतऊ देवर ननदोसिया।’ इस होली गीतों में देवर-भाभी की ठिठोली खूब जमती है। वहीं जब होली के विहंगम दृश्य फगुआ गायकों की टोली में मुखरित होता है तो सहसा मन होली के रंग में सराबोर हो जाने को आतुर हो उठता है, ‘सउसे नगरिया रंग से भरी केकरा सिर डालूं अबीर….।’ फगुआ के दौरान जोगीरा गायन की परंपरा भी निराली है। ‘जोगी जी वाह, जोगी जी धीरे-धीरे…।’ ढोलक, झाल, मजीरे की ताल पर एक के बाद एक फगुआ गायन का सिलसिला घंटों चलते रहता है। साथ में रंग-गुलाल की बौछार भी होती रहती है। पं. विनय पाठक कहते हैं कि पंचांग के मुताबिक गुरुवार की रात 10:37 बजे के बाद हो लिका दहन का मुहूर्त है। होली चैत्र प्रतिपदा को मनाई जाती है। यह तिथि शनिवार को है। शनिवार को ही होली मनाना ही शास्त्रसम्मत है। पर्व-त्योहारों में होली का खास महत्व है। इसे रंगों के त्योहार के रूप में तो जाना ही जाता है, सामाजिक समरसता, प्रेम, भाइचारे और बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक भी माना जाता है। होलिका दहन की परंपरा बुराई पर अच्छाई की जीत का ही प्रतीक है। शहर हो या गांव, जगह-जगह लकड़ियों का होलिका इकट्ठा किया जाता है। इसे गुरुवार की रात जलाया जाएगा। भागमभाग के दौर में आज लोगों के पास वक्त की कमी है। पहले संवत जलाने के लिए युवाओं की
टोली डफ-डफली की थाप पर मनोविनोद के गीत गाते हुए लकड़ियां, गोइठी, चिपरी आदि घर-घर जाकर मांगती थी। गाती थी-‘हे जजमानी तोर सोने के केवाड़ी, एगो लकड़ी द… एगो गोइठी द… एगो चपरी द… संवत जरावे के दिन आइल हो कि गाव लोगे फगुआ…।’ होलिका दहन कर सामूहिक स्वर में फगुआ (होली गीत) देर रात तक वातावरण में गुंजायमान होता रहता है। अगली सुबह कीचड़-कादो उड़ाने की परंपरा भी है। उसके बाद दोपहर से लेकर देर शाम तक रंगों की होली की धूम मचती है। होली गीत भोजपुरी, मैथिली, ब्रज, राजस्थानी, पहाड़ी, बंगाली आदि अनेक भाषाओं एवं बोलियों में गाए जाते हैं। इसमें देवी देवताओं के होली खेलने से लेकर लोगों के होली खेलने का वर्णन होता है। देवी देवताओं में राधा-कृष्ण, राम-सीता और भोलेनाथ के होली खेलने का वर्णन मिलता है। इन होली गीतों में शास्त्रीयता यथा ध्रुपद, धमार, ठुमरी आदि की झलक होती है तो लोक का जलवा भी होता है। बज्जिकांचल में होली गायन का आरंभ भगवान शिव के होली खेलने से होता है, ‘सोनपुर में रंग लूटे बाबा हरिहरनाथ…।’ आमतौर पर इसे सुमिरन कहा जाता है। इसी कड़ी में राधा कृष्ण की होली का रंग देखिए, ‘आज बिरज में होली रे रसिया…।’ चार-पांच सुमिरन के बाद रस-सिक्त फगुआ गायन का सिलसिला शुरू हो जाता है, ‘केसिया सम्हार जुड़वा बांध गे ननदिया, होली खेले अतऊ देवर ननदोसिया।’ इस होली गीतों में देवर-भाभी की ठिठोली खूब जमती है। वहीं जब होली के विहंगम दृश्य फगुआ गायकों की टोली में मुखरित होता है तो सहसा मन होली के रंग में सराबोर हो जाने को आतुर हो उठता है, ‘सउसे नगरिया रंग से भरी केकरा सिर डालूं अबीर….।’ फगुआ के दौरान जोगीरा गायन की परंपरा भी निराली है। ‘जोगी जी वाह, जोगी जी धीरे-धीरे…।’ ढोलक, झाल, मजीरे की ताल पर एक के बाद एक फगुआ गायन का सिलसिला घंटों चलते रहता है। साथ में रंग-गुलाल की बौछार भी होती रहती है। पं. विनय पाठक कहते हैं कि पंचांग के मुताबिक गुरुवार की रात 10:37 बजे के बाद हो लिका दहन का मुहूर्त है। होली चैत्र प्रतिपदा को मनाई जाती है। यह तिथि शनिवार को है। शनिवार को ही होली मनाना ही शास्त्रसम्मत है।  

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