मनोज कुमार की अनसुनी कहानियां, हरिकृष्ण गोस्वामी कैसे बने ‘भारत कुमार’

मनोज कुमार की अनसुनी कहानियां, हरिकृष्ण गोस्वामी कैसे बने ‘भारत कुमार’

जन्म : 27 जुलाई, 1937 निधन: 4 अप्रैल, 2025
Manoj Kumar Special Story: नेक इरादों के साथ बुलंद हौसलोंं की जुगलबंदी किसी कलाकार को कैसे दूसरों से अलग विशिष्ट पहचान देती है, मनोज कुमार इसकी मिसाल थे। विभाजन को लेकर पाकिस्तान के एबटाबाद से भारत आने के बाद जिन दिनों वह नए मकान और पहचान की जद्दोजहद में भटक रहे थे, दिलीप कुमार की ‘शहीद’ (1948) देखने के बाद उनमें उम्मीदों का सूर्योदय हुआ। इस फिल्म की कामयाबी ने मनोज कुमार को नया मंत्र दिया कि फिल्में सतही मनोरंजन का साधन ही नहीं हैं। इन्हें देशभक्ति के साथ समाज को नया संदेश देने का जरिया भी बनाया जा सकता है। इस प्रेरणा के पीछे दिलीप कुमार के प्रति उनकी दीवानगी का भी योगदान रहा। अभिनय सम्राट की ‘शबनम’ देखकर उन्होंने अपना नाम हरिकृष्ण गोस्वामी से बदलकर मनोज कुमार रख लिया था (इस फिल्म में दिलीप कुमार का नाम मनोज था)।

मनोज कुमार का फिल्मी सफर

Manoj Kumar
Manoj Kumar

शुरुआती दौर में ‘हरियाली और रास्ता’, ‘वह कौन थी’ और ‘हिमालय की गोद में’ जैसी कई फिल्मों में रोमांटिक किरदार अदा करने के बाद मनोज कुमार ने उस मंजिल तक पहुंचने में ज्यादा देर नहीं लगाई, जिसके सपने दिलीप कुमार की ‘शहीद’ देखने के बाद उनकी आंखों में करवटें ले रहे थे। उनकी ‘शहीद’ (1965) इस दिशा में पहला पड़ाव था। देशभक्ति की भावनाओं वाली यह फिल्म देखकर तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने मनोज कुमार को ‘जय जवान जय किसान’ की थीम पर फिल्म बनाने की सलाह दी।

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पहले एक्टर फिर बने निर्देशक

मनोज कुमार ने निर्देशन में कदम रखकर ‘उपकार’ (1967) बनाई। इसके ‘मेरे देश की धरती सोना उगले’ की घन-गरज 58 साल बाद आज भी लोगों में देशभक्ति के जज्बे को हरा-भरा कर देती है। इस फिल्म के जरिए मनोज कुमार ने अभिनेता प्राण पर जो उपकार किया, वह भी नया मोड़ था।

 Manoj Kumar Life Story
Manoj Kumar Life Story

मनोज कुमार कैसे बने ‘भारत कुमार’

इससे पहले तक प्राण फिल्मों में खलनायक के तौर पर तमाम बुरे काम कर रहे थे। ‘उपकार’ ने उन्हें ‘‘ से ‘कस्मे वादे प्यार वफा सब बातें हैं बातों का क्या’ गाने वाला संत बना दिया। इस फिल्म के बाद मनोज कुमार ‘भारत’ कुमार के तौर पर उभरे। यह पहचान ‘पूरब और पश्चिम’, ‘रोटी कपड़ा और मकान’, ‘क्रांति’ के साथ लगातार गहरी होती गई। ‘शोर’ बनाकर उन्होंने प्रयोगवादी सिनेमा में भी सिक्का जमाया।

मनोज कुमार अभिनेता, निर्माता और निर्देशक ही नहीं, पटकथा लेखक, संपादक, गीतकार भी थे। भारतीय सिनेमा में ऐसे ‘डेमलकट’ (हीरे की काट जैसी बहुकोणीयता, जो उसके अंदर की आभा को भव्यता के साथ उजागर करती है) कला-व्यक्तित्व गिनती के हुए हैं। मनोज कुमार की विविध रंग-रूप और कल्पना वाली फिल्मों ने उनके प्रखर व्यक्तित्व को पूरी गरिमा के साथ उजागर किया। अभिनेता के तौर पर ‘पत्थर के सनम’, दो बदन, नील कमल, पहचान, यादगार, बेईमान, संन्यासी, ‘दस नंबरी’ जैसी दर्जनों फिल्मों के जरिए वह दर्शकों को मोहते रहे।

मनोज कुमार: मेरा मकसद पैसा और ग्लैमर बटोरना नहीं है…

जयपुर में एक बार मनोज कुमार से मुलाकात के दौरान पूछा कि आप फिल्मों में अपना नाम भारत क्यों रखते हैं। बोले ‘भारत पवित्र शब्द है। मैं इस नाम को हर भारतीय के साथ मिलाना चाहता हूं। बार-बार भारत बनकर पर्दे पर इसलिए आता हूं, ताकि लोग अपने देश के सांस्कृतिक वैभव से जुड़े रहें।’ मनोज कुमार, और शशि कपूर करीब-करीब एक साथ फिल्मों में आए थे। धर्मेंद्र और शशि कपूर के खाते मेें करीब 200-200 फिल्में हैं, लेकिन मनोज कुमार की फिल्मों की गिनती 60 के आसपास रही। इसी मुलाकात में जब वजह पूछी तो मनोज कुमार बोले, ‘मेरा मकसद पैसा और ग्लैमर बटोरना नहीं है। मैं फिल्मों में देश-प्रेम के गीत गाने आया हूं। मुझे देशभक्ति से प्रेम है। किसी भी सच्चे प्रेम में स्वार्थ नहीं, त्याग अहम होता है।’ मनोज कुमार सत्तर के दशक में ‘नया भारत’ नाम की फिल्म बनाने वाले थे, लेकिन बाद में उन्होंने बड़े बजट की ‘क्रांति’ पेश कर दी। ‘नया भारत’ की योजना हमेशा के लिए ठंडे बस्ते में चली गई।

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परछाइयां रह जाती, रह जाती निशानी है…

कवि हृदय मनोज कुमार को लोकप्रिय संगीत की गहरी समझ थी। उनकी फिल्मों की कामयाबी में गीत-संगीत का अहम योगदान रहा। एक कवि सम्मेलन में संतोष आनंद से प्रभावित होकर उन्होंने उनसे ‘पुरवा सुहानी आई रे’ (पूरब और पश्चिम) लिखवाया। बाद में उनकी फिल्मों में संतोष आनंद ने ‘इक प्यार का नग्मा है’, ‘पानी रे पानी तेरा रंग कैसा’ (शोर), ‘मैं न भूलूंगा’ (रोटी कपड़ा और मकान) और ‘जिंदगी की न टूटे लड़ी’ (क्रांति) जैसे कालजयी गीत लिखे।

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