National Education Policy में Three Language Formula क्या है, किस बात को लेकर होता रहा है विवाद?

National Education Policy में Three Language Formula क्या है, किस बात को लेकर होता रहा है विवाद?

National Education Policy(NEP): भारत की त्रि-भाषा नीति(Three Language Formula) हिंदी, अंग्रेजी और राज्यों की क्षेत्रीय भाषाओं से जुड़ी हुई है। देश में हिंदी को शिक्षा का एक माध्यम बनाने की पहल पहले से ही होती रही थी, लेकिन इसे आधिकारिक रूप से 1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शामिल किया गया। इस फॉर्मूले का बैकग्राउंड अगर हम देखते हैं तो हमें कुछ जरुरी घटनाक्रमों पर नजर डालना होगा।

Three Language Formula: स्वतंत्रता से पहले भी हो चुकी है सिफारिश

स्वतंत्रता के बाद 1948-49 में गठित राधाकृष्णन आयोग ने शिक्षा में तीन भाषाओं को शामिल करने की सिफारिश की थी। जिसमें प्रादेशिक भाषा, हिंदी और अंग्रेजी शामिल थी। बाद में, 1955 में माध्यमिक शिक्षा आयोग (मुदलियार आयोग) ने द्वि-भाषा नीति (टू लैंग्वेज पॉलिसी) का सुझाव दिया, जिसमें क्षेत्रीय भाषा के साथ हिंदी को अनिवार्य करने और अंग्रेजी को वैकल्पिक भाषा के रूप में अपनाने की बात कही गई थी। इसके बाद, कोठारी आयोग ने 1968 में त्रि-भाषा नीति की सिफारिश की, जिसे राष्ट्रीय शिक्षा नीति में स्वीकार कर लिया गया। हालांकि, इस नीति को दक्षिण भारतीय राज्यों में व्यापक रूप से लागू नहीं किया जा सका। जिसके कई राजनितिक और सामाजिक कारण थे।

Three Language Formula का कांसेप्ट

पहली भाषा: मातृभाषा या संबंधित राज्य की क्षेत्रीय भाषा होगी।
दूसरी भाषा: हिंदी भाषी राज्यों में यह अंग्रेजी या अन्य आधुनिक भारतीय भाषा होगी, जबकि गैर-हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी या अंग्रेजी होगी।
तीसरी भाषा: हिंदी भाषी राज्यों में यह अंग्रेजी या कोई अन्य आधुनिक भारतीय भाषा होगी, जबकि गैर-हिंदी भाषी राज्यों में अंग्रेजी या कोई आधुनिक भारतीय भाषा होगी।

National Education Policy(NEP): विरोध और विवाद

त्रि-भाषा नीति(Three Language Formula) को लेकर दशकों से बहस चल रही है, लेकिन यह 2019 में और तेज हो गई जब नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का मसौदा प्रस्तुत किया गया। कई दक्षिण भारतीय राज्यों ने हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में अनिवार्य करने के प्रस्ताव का विरोध किया। 2020 में आई नई शिक्षा नीति में भी त्रि-भाषा सूत्र को बरकरार रखा गया, जिसे तमिलनाडु समेत अन्य राज्यों ने खारिज कर दिया। इन राज्यों का आरोप था कि इस नीति के जरिए केंद्र सरकार शिक्षा का “संस्कृतिकरण” करना चाहती है, जबकि केंद्र सरकार ने इसे शिक्षा को अधिक समावेशी और लचीला बनाने का प्रयास बताया। हालांकि यह विरोध सिर्फ तमिलनाडु ही नहीं बल्कि अन्य दक्षिण और नार्थ-ईस्ट के राज्यों का है।

Three Language Formula: दक्षिण भारतीय राज्यों में कई बार हो चुका है विवाद

दक्षिण भारत में हिंदी का विरोध नया नहीं है। यह आंदोलन 1937 से शुरू हुआ, जब मद्रास प्रेसिडेंसी में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की सरकार ने हिंदी को स्कूलों में अनिवार्य करने की कोशिश की। 1938 में, तमिल भाषी समुदाय ने इसका विरोध किया, जो एक बड़े आंदोलन का रूप ले लिया। इस विरोध का नेतृत्व सी.एन. अन्नादुरई ने किया, और अंततः 1939 में ब्रिटिश सरकार ने इस फैसले को वापस ले लिया। यही आंदोलन आगे चलकर दक्षिण भारत में हिंदी विरोधी राजनीति का आधार बना। त्रि-भाषा नीति आज भी शिक्षा और राजनीति का अहम विषय बनी हुई है, खासकर हिंदी भाषी और गैर-हिंदी भाषी राज्यों के बीच भाषाई संतुलन को लेकर।

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